सीताराम
शास्त्री –परिचय
सीताराम शास्त्री का जन्म महबूब नगर आंध्र
प्रदेश (अब तेलंगाना ) के एक छोटे से गाँव पुलिमामड़ी में हुआ ।बाल्यावस्था में दो वर्ष की उम्र में
पिता को खोने के बाद वही कहानी दोहराई गई अर्थात रिश्तेदारों ने माँ और
बच्चों को संपत्तिविहीन कर दिया ।माँ चार लड़कियों और दो लडकों के साथ
जीवन-यापन के लिए खेती-बाड़ी के साथ-साथ गाँव के स्कूल में छोटी-मोटी नौकरी करने
लगीं।बड़ी पुत्री नागम्मा अपने पति सहित माँ का हाथ बँटाने मायके आ गई।अन्य विवाहित
बहनें अपने परिवार के साथ थीं । माँ और बेटी अनपढ़ होने पर भी शिक्षा का महत्व
जानते थे अतः बालक सीताराम को शिक्षित करने का जी-जान से प्रयास किया ।इस कार्य
हेतु बहन ने अपने गहने तक गिरवी रखे पर भाई को गाँव से बाहर हैदराबाद गुरुकुल
घटकेश्वर भी भेजा ।गुरुकुल में आचार्य पं.ऋभुदेव शर्मा जैसे वेदों के विद्वान का सान्निध्य मिलने से
आर्यसमाजी प्रवृत्ति की ओर रुझान हुआ ।शिक्षा की पिपासा और परिवार का सतत सहयोग
सीताराम को इलाहाबाद तक ले आया जहाँ हिंदी साहित्य के प्रकांड विद्वान और चर्चित
साहित्यकार हिंदी विभाग को सुशोभित कर रहे थे-डॉ.व्रजेश्वर वर्मा, डॉ.रामकुमार वर्मा
डॉ.जगदीश गुप्त आदि ।इन सभी ने सीताराम के साहित्यिक लेखन के प्रयास को भी प्रोत्साहन
दिया ।उल्लेखनीय है कि अपने गाँव ही नहीं
इलाके से इतनी शिक्षा प्राप्त करने का अवसर पानेवाले पहले सौभाग्यवान व्यक्ति रहे
।
हैदराबाद
में कुछ समय के लिए स्कूल में नौकरी करने के बाद उस्मानिया वि.वि. से बी,एड और एम.एड करने का साहस
भी किया और वहाँ के विभागध्यक्ष डॉ.तीर्था और श्रीमती तीर्था के प्रियभाजन बने
।1963 मेंआगरा स्थित केंद्रीय हिंदी संस्थान मे अध्यापन कार्य प्रारंभ किया
।संयोगवश डॉ.व्रजेश्वर वर्मा कुछ समय बाद इसी संस्थान के निदेशक बन कर आगरा आ गए
जिससे सीताराम को और अधिक कार्य करने का अवसर मिलने लगा ।
बाद में तीर्था
दम्पति के प्रयास से आचार्य पं. ऋभुदेव
शर्मा जी की बड़ी पुत्री कुमारी वशिनी शर्मा से विवाह तय हुआ जो एम.ए. हिंदी कर
चुकी थी और राजा बहादुर बंसीलाल बालिका विद्यालय में अध्यापन कार्य कर रही थी ।
मई1967 में बहुत ही सादगी से आर्यसमाजी रीति से विवाह संपन्न
हुआ और आगरा में गृहस्थी बसी जहाँ उनकी
माताजी भी साथ रह रही थीं।1968 में सीताराम के घर एक पुत्र ने जन्म लिया मनुकांत
नाम रखा गया ।1970 में द्वितीय पुत्र विक्रांत और 1972 में पुत्री उपासना का जन्म
हुआ ।
इस बीच
वशिनी शर्मा भी ने 1969 में भाषाविज्ञान
के बाद 1973 में केंद्रीय हिंदी संस्थान में ही अध्यापन कार्य प्रारंभ कर दिया
।1975 में सीताराम और वशिनी दोनों ने एक
साथ पी-एच डी की और पहली बार एक साथ एक दीक्षांत समारोह में उपाधि प्राप्त की ।
संस्थान
की कार्यप्रणाली अखिल भारतीय शिक्षकों के शिक्षण-प्रशिक्षण से संबद्ध था और बाद
में 1970 में दिल्ली का केंद्र प्रारंभ करने में भी पर्याप्त उत्साह दिखाया साथी थे इलाहाबाद के अन्य कुछ
सहपाठी जो संस्थान में भी इस समय साथ थे .जगन्नाथन,चतुर्भुज सहाय आदि।
संस्थान में द्वितीय /अन्य भाषा शिक्षण के रूप
में प्रति वर्ष हिंदी और भाषा विज्ञान के कई विभाग खुले और व्रजेश्वर वर्मा जी के निदेशकत्व में
कार्यशालाएँ ,संगोष्ठियाँ
और ग्रीष्मकालीन शिविर कार्य करने के असंख्य अवसर मिलते रहे ।देश के हर भाग में
हिंदीतर भाषा के हिंदी शिक्षकों के लिए आयोजित कार्यक्रमों में सीताराम और वशिनी
को साथ-साथ जाने का अवसर मिलता रहा जो उस समय एक अनूठा संयोग ही रहा । शिक्षाविद
और लोकप्रिय अध्यापक के रूप में देश भर में सीताराम ने ख्याति प्राप्त की ।
1976 में
हैदराबाद केंद्र की स्थापना के लिए डॉ.सीताराम और डॉ.जगन्नाथन ने प्रयास प्रारंभ
किया और बाद में संस्थान कई और केंद्र खुले जैसे –गुवाहाटी ,शिलांग ,मैसूर, दीमापुर ,अहमदाबाद और
भुवनेश्वर आदि।प्रादेशिकता और शिक्षकों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए
सामग्री-निर्माण के कई आयाम खुले ।
लंबी
अवधि तक संस्थान की शोध-पत्रिका गवेषणा का संपादन कार्य करते रहने और कई
विशेषांकों का सफल प्रकाशन कार्य अनेक नए लेखकों को प्रोत्साहित करने का जरिया
बना।गवेषणा के चुने हुए लेखों का विषयवार संपादन तीन पुस्तकों के रूप में सामने आया जिसमें डॉ.मदनलाल वर्मा
सह लेखक रहे । 1996 में दीर्घकालीन सेवा के बाद सेवानिवृत्त होने के बाद भी वे
लेखन में सक्रिय रहे ।
1996 में
पुत्र मनुकांत और 1999 में पुत्री उपासना का विवाह कर एक पारिवारिक दायित्व का
निर्वाह किया ।1998 में पौत्र आर्यन का जन्म हुआ ।2000 में अचानक जनवरी माह में
कैसर जैसी गंभीर बीमारी का पता चला ।मुंबई में टाटा कैंसर अस्पताल में 1 फरवरी को
सफल ऑपरेशन हुआ।आगरा लौटकर कुछ दिन बाद स्वास्थ्य बिगड़ने लगा और 9 मार्च को
सीताराम ने इस संसार से अंतिम बिदा ली ।
SITARAM SHASTRI
Publications
सीताराम
शास्त्री - प्रकाशन
पिछले 20
वर्षों से संस्थान शिक्षक –प्रशिक्षण के अनुभवों के आधार पर डॉ..शास्त्री ने दो
पुस्तकें लिखीं हैं।हिंदी शिक्षण – पारंगत,प्रवीण तथा उनके समकक्ष(बी.एड ,एम.एड)पाठ्यक्रमों के प्रतिभागियों में परीक्षण कार्य से पुस्तकें तैयार की
हैं।सभी हिंदी शिक्षकों के लिए ये
पुस्तकें उपयोगी हैं।
1.हिंदी
शब्दावली और प्रयोग (Hindi
Vocabulary and Usage)
भाग -1 पृ.138 मूल्य भाग-2 पृ..150 मूल्य
ये
कार्यपुस्तकें अनुप्रयुक्त अर्थविज्ञान से संबंधित हैं ।द्वितीय भाषा हिंदी के
सीखने तथा सिखाने में सबसे बड़ी समस्या “शब्द” “पदबंध” अथवा “ वाक्य” का सही-सही अर्थ जानकर भाषाई व्यवहार
में प्रसंगानुसार उनका प्रयोग करना है ।हिंदी में अर्थ के कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जो
विशेषकर हिंदीतर शिक्षकों के लिए महत्व रखते हैं ।सीखने की दृष्टि से इनको कई शीर्षकों
में रखा गया है –जैसे “ ध्वनि और अर्थ “ , “शब्द और अर्थ “, “पदबंध और
अर्थ “ “वाक्य और अर्थ “ इत्यादि ।इन शीर्षकों को शिक्षण बिंदुओं में बाँटकर
अभ्यास के लिए 100 कार्यपत्रक –प्रत्येक भाग में 50-50 दिए गए हैं । इन
समयबद्ध मूल्यांकनपरक अभ्यासों के उत्तर पुस्तक के अंत में दिए गए हैं।
आप हिंदी के हज़ारों शब्द , कहावतें , मुहावरे आदि जानते हैं । क्या आप को विश्वास है कि इनके सही-सही अर्थ आप
जानते हैं । इनकी जाँच के लिए ये पुस्तकें पढ़िए ।
2.(आंध्र प्रदेश में )हिंदी शिक्षण की
समस्याएँ –पृ.197 ,1983 ,मूल्य 17.50
यह पुस्तक लेखक के पी-एच.डी. शोध प्रबंध का संक्षिप्त रूप है ।शिक्षा व्यवस्था में भाषा शिक्षण का अपना एक
विशिष्ट स्थान है ।खास कर हिंदी के शिक्षकों और छात्रों की स्थिति-दोनों का ध्यान
अपनी ओर आकर्षित करती है। इनकी समस्या राष्ट्रीय स्तर की समस्या होती है । इनको
समझकर समाधान खोजे बिना न शिक्षक अपने
कर्तव्य का निर्वाह कर सकते हैं और न छात्र अपने ल्क्ष्य तक पहुँच सकते हैं । इस
पुस्तक में पाठ्यक्रम व पाठ्यपुस्तकें ,भाषा शिक्षण की विधियाँ भाषा –मूल्यांकन, भाषा तुलना और द्विभाषिकता ,हिंदी के शिक्षक और
हिंदी के छात्र आदि विषयों की समस्याओं पर विस्तार से सप्रमाण प्रकाश डाला गया है । हिंदी शिक्षक के
लिए यह एक अनिवार्य पुस्तक है।
3. उच्चस्तरीय अंग्रेज़ी-हिंदी
अभिव्यक्ति-पुस्तक (सह लेखिका- डॉ.वशिनी शर्मा)
(Advanced English-Hindi Phrase Book) पृ.180, मूल्य 17/
“ मैं हिंदी जानता हूँ “ इस
कथन का अर्थ होता है –विविध प्रसंगों में मैं अपनी बात हिंदी में दूसरों तक पहुँचा
सकता हूँ और दूसरों की बात समझ सकता हूँ। द्वितीय
भाषा हिंदी पढनेवाले छात्रों में यह योग्यता दिखाई नहीं देती । ऐसे छात्रों को प्रयोजनमूलक
हिंदी सिखाने की आवश्यकता है ।प्रौढ़ व्यक्ति इसी प्रकार की योग्यता प्राप्त करने
के लिए गाइड बुक या स्वयंशिक्षक की खोज में रहता है ।यह पुस्तक इन्हीं प्रौढ़
व्यक्तियों के लिए लिखी गई है जो अंग्रेज़ी के माध्यम से हिंदी का व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं ।
पुस्तक के दो भाग हैं –प्रथम
भाग में वार्तालाप के 50 प्रसंग दिए गए हैं ।द्वितीय भाग में 53 प्रसंगों की शब्द
सूचियाँ दी गई हैं । इनमें लगभग 2000 आधारभूत शब्द दिए गए हैं ।जिनको देवनागरी
लिपि नहीं आती उनके लिए सर्वत्र रोमन लिपि भी दी गई है । यात्रियों तथा पर्यटकों के
लिए इस पुस्तक का विशेष उपयोग है ।विदेशी भी इस पुस्तक से बातचीत की हिंदी सीख
सकते हैं ।
(Essentially this is
a Guide Book For Tourists).
4.उर्दू-हिंदी परिचय कोश ,द्वितीय संस्करण 2003 पृ..147
, मूल्य 100/
हिंदी तथा उर्दू दोनों मूलतः एक ही भाषा हैं । कुछ शैलीगत भेदों एवं
निम्न सांस्कृतिक तत्वों के कारण उच्च स्तर पर हिंदी उर्दू से अलग हो जाती है।विशेषकर
अरबी-फारसी मूलक शब्दों की बहुलता के कारण उर्दू एक स्वतंत्र भाषा मानी जाती है ।
उर्दू के ऐसे ही असंख्य शब्द हिंदी में
रच-बस गए हैं। प्रायः इन आधारभूत उर्दू
शब्दों का सही (मूल)उच्चारण ,वर्तनी,स्रोत तथा उनके हिंदी समानांतर (पर्याय) शब्द
प्राप्त करने में कठिनाई का सामना करना
पड़ता है । इस कठिनाई को दूर करने के लिए
ही यह परिचय कोश तैयार किया गया है।लगभग 3500 शब्दों का उर्दू के शब्द का परिचय देने के
लिए देवनागरी तथा उर्दू लिपि में इनके मूल उच्चारण तथा वरतनी के साथ-साथ
इसमें पूर्ण पर्याय , अर्ध पर्याय अपर्याय दिए गए हैं ।
उर्दू भाषा की प्रकृति का परिचय देने के लिए कोश की 29 पृष्ठ की भूमिका में उर्दू
की उच्चारण व्यवस्था ,वर्ण /वर्तनी और पद निर्माण की
प्रक्रिया पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है ।उर्दू में /अ/, /स/ , /ज / , /त / ,/ह / तथा /न/ ध्वनियों के लिए क्रमशः 3,3,4,2,,2 तथा 2 वर्णों का
इस्तेमाल होता है । उनके देवनागरी में लिप्यंतरण के लिए एक-एक वर्ण (अ,स,ज,त,ह तथा
न ) का ही प्रयोग होता है ।लेकिन पहली बार इस कोश में उर्दू समस्त शब्द समूह अपनी उच्चारण तथा वर्तनी की मूल
व्यवस्था के अनुरूप लिखा जा सकता है। उर्दू-हिंदी कोश कार्य की पर्रंपरा में यह एक
मौलिक देन माना जा सकता है ।यह कोश हिंदी-उर्दू के छात्रों के लिए संदर्भ ग्रंथ
है।
5. मनोभाषा विकास –(सहलेखिका –डॉ.वशिनी शर्मा ) पृ.263 ;मूल्य 27 /
भाषा “ मानसिक “ उत्पत्ति है । इसके
उत्पादन तथा ग्रहण में मानसिक शक्तियाँ काम करती हैं। कालक्रम से मन ,मस्तिष्क
तथा शरीर के विकास के साथ भाषा का विकास माना जाता है ।विकास के इस बहुआयामीय रूप
से भाषा शिक्षक को परिचित रहना चाहिए ।
6 अध्यायों में 86 शीर्षकों
में यह बताने का प्रयास किया गया है कि शिशु की विभिन्न अवस्थाओं में विकास के
क्या अभिलक्षण हैं ? शिशु कब से और कैसे भाषा सीखना शुरु करता है ? शिशु ,बालक ,युवाओं और प्रौढ़ों के भाषा सीखने में क्या
अंतर है ? प्रथम भाषा और द्वितीय भाषा सीखने में क्या भेद है
? वाणी /भाषा दोष क्या-क्या हैं ? इनको कैसे दूर किया जा सकता है ?भाषा-अर्जन में कौन-कौन सी सृजनात्मक शक्तियाँ काम करती हैं? अपंग (लंगडे -लूले,अंधे-बहरे ) बच्चों का भाषा –विकास कैसे होता है ? इस
प्रकार के अनेक प्रश्नों के उत्तर इस पुस्तक में दिए गए हैं।
मनोभाषा विकास के छात्रों के
लिए यह पुस्तक एक संदर्भग्रंथ है । अपने विषय की
हिंदी में यह पहली पुस्तक है ।